गुरु का ‘धंधा’ और शिष्य का ‘सौदा’: आधुनिक शिक्षा का कड़वा सच , परंपरा से आधुनिकता तक गुरु-शिष्य संबंधों की बदलती सच्चाई”

गुरु पूर्णिमा विशेष :
गुरु पूर्णिमा, एक ऐसा पर्व जो न केवल भारतीय संस्कृति की आत्मा को अभिव्यक्त करता है, बल्कि यह उस सनातन परंपरा का उत्सव भी है, जिसमें ‘गुरु’ को ईश्वर से भी ऊपर स्थान दिया गया है। हर वर्ष आषाढ़ मास की पूर्णिमा को मनाई जाने वाली यह तिथि, केवल एक पर्व नहीं, बल्कि आत्मबोध, श्रद्धा और ज्ञान के दीप का प्रतीक है।
गुरु पूर्णिमा की उत्पत्ति और आध्यात्मिक गूंज
गुरु पूर्णिमा का मूल संस्कृत शब्द है ‘गुरु’ – जिसका अर्थ है, “अंधकार को दूर करने वाला।” मान्यता है कि इसी दिन आदि गुरु महर्षि वेदव्यास का जन्म हुआ था, जिन्होंने चारों वेदों का संकलन कर भारतीय ज्ञान परंपरा को स्थायित्व प्रदान किया। इसीलिए इस दिन को ‘व्यास पूर्णिमा’ भी कहा जाता है। बौद्ध परंपरा में यह दिन गौतम बुद्ध के प्रथम उपदेश (सारनाथ) का स्मरण है, जिसे उन्होंने अपने पाँच शिष्यों को दिया था।
भारतीय संस्कृति में गुरु की प्रतिष्ठा
“गुरु ब्रह्मा, गुरु विष्णु, गुरु देवो महेश्वर:” – यह श्लोक कोई मात्र काव्यात्मक अलंकरण नहीं, बल्कि भारतीय मन की गहराइयों में बसी उस श्रद्धा का प्रतिबिंब है, जहाँ गुरु को सृष्टि, पालन और संहार की त्रिवेणी के रूप में देखा गया। गुरु केवल पाठ पढ़ाने वाला व्यक्ति नहीं होता, वह जीवन का मार्गदर्शक, आत्मा का ज्योतिर्मय दर्पण और शिष्य की चेतना का जाग्रक करता होता है।
जीवन में गुरु की अपरिहार्यता
किसी भी क्षेत्र में सफल होने के लिए केवल ज्ञान नहीं, विवेक और दिशा की आवश्यकता होती है – यही भूमिका गुरु निभाता है। एक गुरु केवल किताबों का ज्ञान नहीं देता, वह जीवन जीने की कला सिखाता है, शिष्य की दृष्टि को विस्तृत करता है और उसे आत्मनिर्भर बनाता है। कबीरदास ने स्पष्ट कहा है –
“गुरु गोविंद दोऊ खड़े, काके लागूं पाय। बलिहारी गुरु आपने, गोविंद दियो बताय।।”
यह श्लोक स्पष्ट करता है कि गुरु वह सेतु है जो मनुष्य को ईश्वर तक पहुँचाता है।
शिष्य का समर्पण और गुरु की जिम्मेदारी
गुरु और शिष्य का संबंध परस्पर समर्पण और विश्वास पर आधारित होता है। गुरु की जिम्मेदारी है कि वह न केवल ज्ञान दे, बल्कि चरित्र और विचारों की भी नींव रखे। वहीं शिष्य का कर्तव्य है कि वह श्रद्धा, अनुशासन और विनम्रता से अपने गुरु की सेवा करे।
प्राचीन गुरुकुल व्यवस्था में यह संबंध जीवनपर्यंत बना रहता था – शिष्य गुरुकुल में तप, सेवा और ब्रह्मचर्य का पालन करता था, और गुरु उसके जीवन निर्माण में कोई कसर नहीं छोड़ता था। गुरु अपने शिष्यों से न तो शुल्क लेता था, न ही उन्हें ग्राहक मानता था। यह संबंध आत्मा और आत्मा के बीच का था – शुद्ध, निष्कलुष और उदात्त।
बदलते समय में गुरु-शिष्य संबंध: एक कटु यथार्थ
आज तकनीकी युग में जहाँ शिक्षा प्रणाली डिजिटल प्लेटफॉर्म्स, कोचिंग संस्थानों और प्रतिस्पर्धा की भट्टी में तप रही है, वहाँ गुरु-शिष्य संबंध भी एक हद तक “व्यावसायिक सौदा” बनकर रह गया है। आज शिष्य ‘रिजल्ट’ चाहता है, ‘मार्गदर्शन’ नहीं, और गुरु ‘फीस’ चाहता है, ‘साधना’ नहीं।
गुरु अब संस्थान का नाम बन गया है, और शिष्य उसका ‘क्लाइंट’। इस संबंध की आत्मा कहीं खोती जा रही है। मोबाइल ऐप्स, ऑनलाइन ट्यूटर और एआई की बढ़ती भूमिका ने गुरु को एक सेवा प्रदाता बना दिया है, जहाँ संबंध की गरिमा नहीं, लेन-देन की भाषा चलती है।
फिर भी आशा बाकी है…
हालांकि यह बदलाव व्यापक है, फिर भी अनेक शिक्षक आज भी अपने कर्मपथ पर अडिग हैं – जो विद्यार्थियों के भविष्य को अपना धर्म समझते हैं, जो आज भी गुरुकुल की आत्मा को आधुनिक कक्षा में जीवित रखे हुए हैं। ऐसे शिक्षकों को नमन, और ऐसे शिष्यों को भी, जो आज भी अपने गुरु के चरणों में नतमस्तक होते हैं।
निष्कर्ष: गुरु बनें तो प्रेरणा, शिष्य बनें तो साधना
गुरु पूर्णिमा केवल एक पर्व नहीं, यह स्मरण है उस अनमोल रिश्ते का, जो हमारे व्यक्तित्व की नींव रखता है। आवश्यकता है कि हम आधुनिक संसाधनों का उपयोग करें, पर परंपरा की आत्मा को न मरने दें। गुरु को फिर से समाज का आदर्श बनाना होगा और शिष्य को फिर से साधक।
“गुरु बदलते रहें, लेकिन गुरुत्व न बदले – यही आज की सबसे बड़ी जरूरत है”।
✍️ लेखक: [ राजेश निर्मलकर , B.J.M.C. (Bachelor of Journalism & Mass Communication), M.M.C.J. (Masters of Mass Communication & Journalism), L.L.B. (Bachelor of Laws) , डायरेक्टर, शिखर दर्शन न्यूज ]