फोटोकॉपी नहीं चलेगी जब तक मूल दस्तावेज गायब होने का ठोस कारण न हो: हाईकोर्टदुष्कर्म और धोखाधड़ी के मामले में हाईकोर्ट की अहम टिप्पणी, ट्रायल कोर्ट के फैसले पर उठाए सवाल

बिलासपुर (शिखर दर्शन) // छत्तीसगढ़ हाईकोर्ट ने एक महत्वपूर्ण फैसले में कहा है कि जब तक यह स्पष्ट रूप से सिद्ध न हो जाए कि कोई मूल दस्तावेज़ वास्तव में गुम हो गया है या जानबूझकर छिपाया गया है, तब तक उसकी फोटोकॉपी (द्वितीयक साक्ष्य) को न्यायालय में स्वीकार नहीं किया जा सकता। यह टिप्पणी कोर्ट ने एक महिला द्वारा शादी का झांसा देकर दुष्कर्म और धोखाधड़ी के आरोपी के खिलाफ पेश किए गए कथित विवाह एग्रीमेंट की फोटोकॉपी को लेकर की।
मुख्य न्यायाधीश रमेश सिन्हा और न्यायमूर्ति बिभु दत्त गुरु की खंडपीठ ने स्पष्ट किया कि भारतीय साक्ष्य अधिनियम, 1872 के तहत प्राथमिक साक्ष्य ही किसी तथ्य को प्रमाणित करने का प्रमुख स्रोत होता है। द्वितीयक साक्ष्य को केवल अपवाद की स्थिति में ही स्वीकार किया जा सकता है, वह भी तब जब यह सिद्ध हो कि मूल दस्तावेज उपलब्ध नहीं है और उसके न मिलने का कारण क्या है।
क्या है मामला ?
सरगुजा जिले की एक महिला ने विजय उरांव नामक युवक पर शादी का झूठा वादा कर शारीरिक संबंध बनाने और बाद में विवाह से इनकार करने का आरोप लगाया। इस पर आरोपी के खिलाफ आईपीसी की धारा 376 (दुष्कर्म) और 417 (धोखाधड़ी) के तहत मामला दर्ज हुआ। आरोपी को गिरफ्तार कर कोर्ट में चालान प्रस्तुत किया गया और ट्रायल कोर्ट ने आरोप तय कर सुनवाई शुरू की।
विवाह एग्रीमेंट की फोटोकॉपी पर विवाद
सुनवाई के दौरान महिला ने एक कथित विवाह एग्रीमेंट की फोटोकॉपी कोर्ट में पेश की, जिसे ट्रायल कोर्ट ने स्वीकार कर लिया। लेकिन आरोपी पक्ष ने इस पर आपत्ति जताते हुए कहा कि न तो यह दस्तावेज पुलिस जांच के दौरान पेश किया गया था और न ही पीड़िता के धारा 161 या 164 के बयान में इसका कोई उल्लेख है। साथ ही इसे रिकॉर्ड में लेने के लिए कोई विधिवत आवेदन भी नहीं दिया गया।
हाईकोर्ट ने क्यों जताई आपत्ति ?
खंडपीठ ने कहा कि साक्ष्य अधिनियम की धारा 65 और 66 के अनुसार, द्वितीयक साक्ष्य तभी स्वीकार्य है जब मूल दस्तावेज आरोपी के पास हो और नोटिस देने के बाद भी वह उसे प्रस्तुत न करे। इस मामले में न तो यह दस्तावेज चार्जशीट का हिस्सा है और न ही जांच के दौरान प्रस्तुत किया गया, बल्कि यह क्रॉस एक्जामिनेशन के दौरान अचानक लाया गया, जिसे स्वीकार करना कानूनन उचित नहीं है।
हाईकोर्ट ने स्पष्ट कहा कि जब तक यह नहीं बताया जाता कि मूल दस्तावेज कहां है, या वह क्यों उपलब्ध नहीं हो पा रहा, तब तक उसकी फोटोकॉपी पर अदालत भरोसा नहीं कर सकती।
यह फैसला न सिर्फ साक्ष्य की विश्वसनीयता के सिद्धांतों को दोहराता है, बल्कि यह भी सुनिश्चित करता है कि न्याय प्रक्रिया में प्रमाणिकता और पारदर्शिता बनी रहे।