राष्ट्रीय

आपातकाल के 50 वर्ष: लोकतंत्र पर पड़ी तानाशाही की छाया और तुर्कमान गेट की अनकही पीड़ा


आपातकाल की पृष्ठभूमि: क्यों लगी थी आपातकाल ?

25-26 जून 1975 की मध्यरात्रि से भारत में आपातकाल लागू किया गया था, जो 21 मार्च 1977 तक चला। तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने संविधान के अनुच्छेद 352 के तहत इस कदम का ऐलान किया। यह घोषणा तत्कालीन राष्ट्रपति फखरुद्दीन अली अहमद ने केंद्र सरकार की सिफारिश पर मंजूर की।

आपातकाल लगाने की मुख्य वजह इलाहाबाद हाईकोर्ट का 12 जून 1975 को सुनाया गया फैसला था, जिसमें इंदिरा गांधी के रायबरेली से चुनाव को रद्द कर दिया गया और छह साल तक चुनाव लड़ने पर प्रतिबंध लगाया गया। इस फैसले के बाद देश में राजनीतिक संकट गहराया और विरोध प्रदर्शन तेज हो गए। विरोध के दबाव में आकर इंदिरा गांधी ने आपातकाल की घोषणा कर लोकतंत्र को अस्थायी रूप से रोक दिया।


तुर्कमान गेट: आपातकाल की मार झेलता इलाका

दिल्ली के तुर्कमान गेट इलाके में आपातकाल के दौरान हुई जबरदस्त यातनाएं आज भी लोगों की यादों में ताजा हैं।

यह इलाका पहले खुला मैदान था, जहाँ लोगों को बसाया गया था, पर न पानी था, न शौचालय। लोग डर के साए में जीते थे। उस दौर में जब पुलिस ने घरों को ध्वस्त करना शुरू किया तो कई लोग घायल हुए। फायरिंग और आंसू गैस के बीच लोग परिवार से बिछड़ गए।

तुर्कमान गेट में नसबंदी अभियान की बड़ी मार पड़ी, जो संजय गांधी की अगुवाई में चलाया गया था। घरों के जबरन ध्वस्तीकरण और जबरदस्ती नसबंदी ने यहाँ के लोगों की ज़िंदगी तबाह कर दी।


जबरन नसबंदी अभियान: घातक राजनीतिक तानाशाही

आपातकाल की तानाशाही के काले अध्याय में से एक था जबरन नसबंदी का काला अभियान।

75 वर्षीय रजिया बेगम, जो उस वक्त यूथ कांग्रेस से जुड़ी थीं, बताती हैं कि उन्हें घर-घर जाकर ‘छोटा परिवार’ बनाने का संदेश देना पड़ता था, लेकिन लोगों का गुस्सा और डर दोनों साथ थे। नसबंदी करवाने वालों को भले ही घी, रेडियो और 250 रुपये तक दिए गए, लेकिन वह मुआवजा उनके टूटे हुए सपनों और परिवारों की भरपाई नहीं कर पाया।

तुर्कमान गेट में इस अभियान का खौफनाक असर अब भी बुजुर्गों की आंखों में दिखता है।


राजनीतिक और सामाजिक प्रभाव: लोकतंत्र की आहुति

आपातकाल के दौरान विपक्ष के नेताओं को गिरफ्तार किया गया, प्रेस पर सेंसरशिप लगी, और राजनीतिक विरोध को दबा दिया गया। देश में लोकतंत्र के मूल स्तंभों को कमजोर किया गया।

तुर्कमान गेट जैसे इलाकों में सरकारी दबाव और जबरदस्ती की भयावह कहानी ने देशवासियों के मन में गहरी चोट पहुंचाई। आज भी कांग्रेस पार्टी पर आपातकाल की छवि छाई हुई है, जो राजनीतिक बहसों और आलोचनाओं का केंद्र बनी हुई है।


आज 50 साल बाद: यादें, पीड़ा और लोकतंत्र की सीख

50 साल बाद भी तुर्कमान गेट के लोग आपातकाल की यातनाओं को भूल नहीं पाए हैं। घरों का उजड़ना, परिवारों का बिखरना, और जबरदस्ती नसबंदी के जख्म आज भी उनके दिलों में ताजा हैं।

यह इतिहास हमें यह याद दिलाता है कि लोकतंत्र और व्यक्तिगत स्वतंत्रता की रक्षा के लिए हमेशा सजग रहना चाहिए। लोकतांत्रिक संस्थानों को कमजोर करने वाले कदम लंबे समय तक समाज पर प्रभाव छोड़ते हैं।


निष्कर्ष: आपातकाल का काला अध्याय न केवल राजनीतिक इतिहास का हिस्सा है, बल्कि यह सामाजिक चेतना का भी महत्वपूर्ण सबक है। तुर्कमान गेट की पीड़ा और तबाही उस दौर के चेहरे हैं, जो हमें लोकतंत्र के लिए सतर्क रहने और उसकी रक्षा के लिए निरंतर प्रयासरत रहने की प्रेरणा देते हैं।


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